एलोपेथी की नई नई दवाई ज्यो ज्यों बढ़ी, रोग के जीवाणु विषाणु भी उतने ही निम्न वर्गमे छोटे हो।कर बढ़े।
एक एमपीसीलिन क्या आई उसके बाद उसी वर्ग में अमोक्सी आई। और बाद में तो कई इंग्रेडिएंट्स के साथ हर बार बदलाव आया है।
मेरा सवाल है, क्यों??
फार्मा कम्पनी का ऐसा कोनसा जुनुन पैसे कमाने के लिए नई नई शोध संशोधन करता रहा और वायरस बेक्टेरिया को अलग अलग रूप से हनन से नाथ करता रहा। और जब कोरोना आया तो कोई दवाई कारगर नही हुई?? एक साल बाद बड़ी मशक्कत से तवज्जु मिला दवाई को!!!
आयुर्वेद में जब वैद्य दवाई देते है तो मात्रा से सम्पूर्ण शरीर से रोग मिट जाए ऐसे प्रमाण मापन से जड़ीबूटी देते थे।
आज के दिन में जो पुराना वायरस था वही एंटीबॉयोटिक से थोड़ा सम्भल कर आगे बढ़ गया तो उसकी बौद्धिक संपदा पर दुनिया के वैज्ञानिक हवा खाने लगे।
डॉक्टर्स भी पेसो की लालच में या किसी प्रलोभन में फार्मा कम्पनी के प्रोडक्ट्स फटाफट प्रिसक्रैब करने लगे।
कहि पर कुछकुछ गलत नही पर ज्यादा पेसो की लालच, महंगाई ने बहुत गलत पर्यावरण तक को ना छोड़कर हुआ, तभी आज कोरोना को भी वेरियंट खुद मनुष्य शरीर के अंदर करने की जानकारी मिल गई।
जो वायरस सिर्फ वात कफ पित्त को छोड़ फेफड़े को पत्थर जैसा बनाता था वही आंखों में भी म्यूकरमैकोसिस से मनुष्य की सूर्य चन्द्र कहलाती आंख पर वार करने लगा।
ईस्टर आइलैंड के रापानूई ओर उससे दूर टिकी की बात आज सही लगी।
जय गुरुदेव दत्तात्रेय, जय हिंद
जिगरम जैगीष्य
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